shradha

श्रद्धा विनीत नागपाल

मैं राजकीय कालेज के स्नातक के आखिरी वर्ष की छात्रा थी | पढ़ाई व खेलों में अव्वल रहने व चंचल प्रवृति के कारण हरेक से जल्दी घुलमिल जाया करती थी | रोहन हमारे कालेज में नए-नए लेक्चरार नियुक्त हुए थे | सुंदर चेहरा, लंबा कद बहुत ही आकर्षक वयक्तितव के स्वामी थे | उनके चेहरे पर हमेशा हलकी सी मुस्कान रहा करती थी | वो अपने शिष्यों से हमेशा मित्रतापूर्ण व्यवहार करते | हमेशां सब में घुल-मिल कर उनके दिल का हाल जान लेते व यथासंभव उनकी हर मुश्किल का हल करते |

उनकी इस प्रवृति के कारण मैं उनकी और झुकती चली गई | मुझे कब उनसे प्यार हो गया, पता ही न चला | कक्षा में बैठी हर पल उन्हें निहारती रहती | कई बार मैंने उन पर आंखों के इशारों से इजहार किया पर वो हर बार अनदेखा कर कर गए |

एक दिन मैं अवसर देखकर, जब वो लाइब्रेरी में बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे, उनसे कह दिया कि मैं आपको प्यार करती हूँ | मगर ये सुनते ही उनके माथे पर सिलवटें उभर आई | वो कुछ पल अवाक से सोचते रहे, फिर वहाँ से उठकर चले गए |

तीन-चार दिन वो कालेज न आए | मैं मन ही मन सोच रही थी, कि शायद वो बुरा मान गए हों | लेकिन उनके चेहरे पर वही मुस्कान देखकर दिल को तसल्ली हुई | मगर मैं कुछ पूछने की हिम्मत न कर सकी |

कालेज में आने के दूसरे दिन बाद ही रोहन मेरे पास आए व कहने लगे,"रोहिला, क्या आज कालेज से छुटटी के बाद मेरे साथ एक कप चाय पी सकोगी ?" मैंने जल्दी से हाँ कर दी | छुटटी के बाद हम दोनों कालेज के पास ही एक रेस्टोरेंट में चले गए | रेस्टोरेंट की टेबल पर बैठते ही चाय का आर्डर दे दिया | हम दोनों चुप बैठे थे | दोनों में से कोई भी पहल नहीं कर पा रहा था | आखिर रोहन ने ही चुप्पी को तोड़ा और कहा,"रोहिला, मैं तुम्हारी भावनाओं की कद्र करता हूँ, लेकिन जो तुम कह रही हो, वो नहीं हो सकता, मैं पहले से शादीशुदा हूँ | मेरी एक डेढ़ वर्ष की बिटिया भी है | तुम मेरी शिष्य हो और एक गुरु व शिष्य के मध्य यह सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता, उनमें स्नेह की एक भावना तो होती है, लेकिन उनके प्यार में वासना का कहीं नामोनिशान नहीं होता, एक गुरु व शिष्य के बीच का प्यार स्वच्छ होता है, निष्कलंक होता है, जैसे एक पिता व बेटी के मध्य होता है, इस कारण मैं तुमसे प्यार या शादी नहीं कर सकता, तुम्हें अपना भविष्य सवाँरना है, पढ़ लिख कर अपने जीवन के अंधकार को दूर करना है | इस प्यार के रोग को छोड़कर जीवनपथ में आगे बढ़ना है | गुरु व शिष्य की मर्यादा को कायम रखना हैं |" इतन सब कहकर वो चले गए |

उनके ये शब्द मुझे अंदर तक कचोट गए, मैं सोच में डूब गई | अंत में मैंने एक फैसला लिया व अपनी पढाई में जुट गई | आज मैं भी कालेज में लेक्चरार के रूप में कार्य कर रही हूँ | मेरा अपना परिवार है | मुझे आज भी जब रोहन (सर) की ये बातें याद आती हैं तो मेरी सिर उनके प्रति श्रद्धा से झुक जाता है |

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